




ब्रज गोपिका सेवा मिशन द्वारा आयोजित 21 दिवसीय प्रवचन श्रृंखला के छठवें दिन डॉ स्वामी युगल शरण जी शरणागति के विभिन्न पहलू पर अपना वक्तव्य रखा जैसे
क्या भगवान की कृपा किसी शर्त पर निर्भर
भगवान तो अकारण करुण है, तो अभी तक हमारे ऊपर कृपा क्यों नहीं हुई? क्या इसके लिये भगवान कोई मूल्य लेते हैं या उन्होंने इसके लिए कोई शर्त रखी है। इसके लिए उनकी शर्त है कि यदि कृपा चाहते हो मेरी शरण में आ जाओ। हम इस सर्त्त को पूरा नहीं किए। अनादिकाल से हम जिसकी शरणागति करनी है उसकी शरणागति नहीं कर रहे और जिनकी नहीं करनी है अनादिकाल से उसकी कर रहे हैं। संसार में पिता, माता, पुत्र, पति, पत्नी सबकी शरणागति हो रही है। केवल भगवान की शरणागति नहीं कर रहे।
शरणागति क्या है?
यो ब्रह्माणं विद्धाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तँ ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्, ६-१८)
अर्थात् हमको उस परमेश्वर की शरण में जाना है जिसकी कृपा से आत्मा एवं बुद्धि प्रकाशित होती हैं। शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि सब कुछ अर्पित कर देना, उसको सर्वसमर्पण या शरणागति कहते हैं। शरणागति का अर्थ कुछ नहीं करना।
शरणागति के बारे में बाईबिल भी कहती है- दीनहीन होकर अपने आपको भगवान को दे दो, ताकि वह सदा सदा के लिए तुम्हें अपना लें और तुम्हारा हो जायें।
वास्तविक शरणागति
शरणागति ठीक-ठीक करनी है, तब कृपा मिलेगी। इन्द्रियों की शरणागति वास्तविक शरणागति नहीं है। शरणागति मन से करनी है, शरीर से नहीं। भगवान गीता में कहते हैं-
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः (पंचदशी)
शरणागति के बाधक तत्त्व ३ कपूयाचरण और ४ तुष्टि
जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य हमारी शरणागति हो पाने के विषय कहा है- ये तीन कपूयाचरण शरणागति के बाधक तत्त्व है- जिम्ह भाव, अनृत भाव, माया भाव। जिम्ह का अर्थ सरलता का अभाव, अनृत भाव का अर्थ वास्तविकता को छुपाना अर्थात् निर्मलता का अभाव। माया भाव का अर्थ है लोकरंजन, दिखावा करना । श्री रामानुजाचार्य ने भी अपने ग्रन्थ श्रीभाष्य में इन तीन कपूयाचरण के बारे में लिखा है।
भगवान कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।
(रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, दोहा – ४३, चौपाई – ३)
जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य ने कपूयाचरण के साथ-साथ ४ तुष्टि भी बताया है। ये भी शरणागति में बाधक तत्त्व हैं। पहला तुष्टि- भगवत् तुष्टि अर्थात् भगवान को दोष देना, शरणवरण तुष्टि- शाब्दिक शरणागति अर्थात् मुँह से बोल देना, तृतीय में काल तुष्टि अर्थात् समय आने से हो जाएगा, समय को दोष देना और चौथी है भाग्य तुष्टि – हमारे भाग्य में नहीं है, भाग्य में होगा तो हो जाएगा, भाग्य को दोष देना।
भाग्य क्या है?
पिछले जन्म में हमारे द्वारा किया हुआ पुरुषार्थ ही वर्त्तमान में भाग्य बनता है। आयु, कर्म, वित्त, विद्या, मृत्यु ये पाँच चीजें जब बच्चा गर्भ में होता है, तभी निर्धारित कर दी जाती है। ये पाँच चीजें निश्चित है। प्रारब्ध जन्य कर्म, प्रारब्ध जन्य धन निश्चित है।
कर्म के प्रकार
कर्म तीन प्रकार की है। संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म। ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के अनंतानंत जन्मों के पाप-पुण्य कर्मों का हिसाब भगवान के पास है जिसको संचित कर्म कहते हैं। भगवान इन्हीं संचित कर्मों का एक टुकड़ा निकाल कर जन्म के समय दे देते हैं, उसको प्रारब्ध कर्म कहते हैं। वह मात्र ३% । अभी हम जो कर्म करते हैं, उसको क्रियमाण कर्म कहते हैं। इसको करने में जीव स्वतंत्र है। क्रियमाण कर्म ९७% हमारे हाथ में है।।
चार प्रकार के लोग* *शरणागति नहीं करते
मूढ़, जो भगवान के बारे में कुछ जानते नहीं, गरीब है, अपने खाने-पीने के लिए सुबह से शाम तक कमाते रहते हैं। दूसरे प्रकार को नराधम कहते हैं। ये जानते हैं कि हम भगवान की अंश हैं, वही हमारा वास्तविक संबंधी है, लेकिन लापरवाही करते हैं। तृतीय माया परितज्ञान हैं। ये लोग भगवान के बारे में बहुत तर्क, वितर्क, कुतर्क करते हैं। चौथे आसुर भावाश्रित हैं। ये असुर प्रवृत्ति के लोग दूसरों को भगवान की ओर चलने नहीं देते, भगवान का नाम नहीं लेते, पैर खींचते हैं। तो ये चार प्रकार की लोग भगवान की शरणागति नहीं करते। इसमें से हम नराधम है क्योंकि हम जान-जान कर अपराध कर रहे हैं। जान-जान कर लापरवाही करते, भगवान की ओर नहीं चलते।
भगवत्प्राप्ति कैसे होगी ?
भगवत् प्रेम से भगवत् प्राप्ति, भगवत् विश्वास से भगवत् प्रेम, भगवत् ज्ञान से भगवत् विश्वास, भगवत् ज्ञान भगवत् कृपा से और वह भगवत् कृपा भगवत् शरणागति से होगी।
शरणागत के भगवान ही सर्वस्व
अर्थात् वे मेरे हैं। ये भाव होना चाहिए। दूसरा है- मैं उनका हूँ। इससे कोई बात बनने वाली नहीं कि ‘मैं उनका हूँ’, बात बनेगी इसमें कि वे मेरे हैं। लेकिन जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं कि इसमें ही लगा दो अर्थात् वह ही मेरे हैं। यह नहीं कि वे मेरे ही हैं, इसका अर्थ है कि मैं ही उनका हूँ। भगवान का तो संपूर्ण जगत है, तो और सारे जीव कहाँ जाएँगे? इसलिए वे ही मेरे है, ठीक है। इसी को दृढ़ करना है।
*शरणागति किस प्रकार का कर्म*
शरणागति यदि अच्छा कर्म होता तो स्वर्ग मिलता, बुरा कर्म होता तो नरक मिलता और दोनों का मिक्श्चर होता तो मृत्युलोक मिलता। लेकिन भगवान कहते हैं कि मेरी शरणागति करने से मुझे प्राप्त करोगे। यानी शरणागति इन तीनों कर्मों से कोई भिन्न कर्म है।
शरणागति में अपने आपको कर्ता नहीं मानना है।
यदि कोई स्वयं को कर्त्ता स्वीकार करता है, वह अच्छा करेगा या बुरा करेगा और उसी के अनुसार भगवान उसे फल देते हैं। इसलिए गीता में भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि तू अपने आपको कर्ता मत मान । तू यदि स्वयं को कर्ता मानेगा तो तुझसे धर्म होगा या अधर्म होगा और दोनों कर्म है, बन्धन में पड़ेगा। इस बंधन से छूटने के लिए स्वयं को अकर्त्ता मान । तू कुछ मत कर।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रजः। (गीता १८.६६)
अर्थात् सबकुछ छोड़ कर तू मेरे शरण में आ जा।
शरणागत जीव के लिए भगवान क्या करते हैं?
भगवान शरणागत जीवों के लिए दयालु बन जाते हैं। कोई सैकड़ों अपराध किया है, लेकिन यदि वह उनकी शरण में आ जाएगा , तो वे पिछले अपराध को क्षमा कर देते हैं और दुबारा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करा लेते हैं। जीव जब अपने आपको दे देता है तो फिर स्वयं प्रत्यक्ष रूप से भगवान उस जीव का योगक्षेम वहन करते हैं। योगक्षेम वहन का अर्थ होता है, जीव के पास जो कुछ है, भगवान उसकी रक्षा करते हैं और जो उनके पास नहीं है, उसको देते हैं और जो उसको मिलने वाला नहीं है, उसको भी देते हैं । शरणागत जीव की चिन्ता स्वयं भगवान करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं। इसी को कहते हैं- योगक्षेम वहाम्यहम् ।
शरणागत की अवस्था
शरणागति शत प्रतिशत होना चाहिए। इसमें बाल भर का भी अंतर नहीं होना चाहिए। जब सारे आश्रय छूट जाएँ, सारे बल छूट जाएँ और हम व्याकुल होकर उन्हीं को अपना मान कर पुकार लेंगे, बस, कुछ न करने वाली अवस्था में पहुँच जाएँ और यही वास्तविक शरणागति की अवस्था है।




