भगवत कृपा से भगवान को जान सकते हैं —– स्वामी जी के श्री मुख से—-

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भगवत कृपा से भगवान को जान सकते हैं —– स्वामी जी के श्री मुख से—-

ब्रज गोपिका सेवा मिशन द्वारा आयोजित 21 दिवसीय विलक्षण दार्शनिक प्रवचन श्रृंखला के पांचवे दिन भगवत् कृपा विषय पर डॉ स्वामी युगल शरण जी ने प्रकाश डाला। और बताया
*क्या माया से छुटकारा पाया जा सकता है?*
वेद कहता है कि कोई माया से छुटकारा नहीं पा सकता। यह भी बताया गया है कि माया कभी नष्ट नहीं होगी। इसका अर्थ है कि हमको माया से छुटकारा कभी नहीं मिल सकता। यदि माया से छुटकारा नहीं मिल सकता तो हमारा कल्याण कभी नहीं होगा!  ऐसा नहीं है। भगवान या जीव कोई भी माया को नष्ट नहीं कर सकता। इसका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि यह नित्य तत्त्व है, लेकिन इससे छुटकारा मिल सकता है।
*भगवान को जानने का उपाय*
भगवान को जाना जा सकता है, परंतु अपने बल से नहीं। प्रवचन सुनकर नहीं, ग्रंथ पढ़कर नहीं, अपनी बुद्धि से नहीं। गीता, भागवत पाठ करके भी उसे जाना नहीं जा सकता। इसको प्रैक्टिकली करना होगा। कुछ लोग गीता और भागवत का श्लोक कण्ठस्थ करके अपने आपको ज्ञानी समझते हैं। ऐसे  ज्ञान से  ज्ञानाभिमान आ जाता है और यह भगवान से पृथक् करने वाला महान् बाधक तत्त्व है।
किन्तु यदि भगवान किसी सौभाग्यशाली जीव के ऊपर कृपा कर देगा, तो वह जीव भगवान को जान लेगा, देख लेगा, पा लेगा, कृतार्थ हो जाएगा। यदि कृपा नहीं होगी तो वह ब्रह्मा क्यों न हों, सरस्वती-बृहस्पति क्यों न हो, भगवान को नहीं जान सकता। वेद में कहा गया है-
तपः प्रभावाद्देवप्रसादाच्च।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् – ६.२१)
अर्थात् साधना तो करनी पड़ेगी। केवल साधना से नहीं होगा, उसके साथ हरि का प्रसाद अर्थात् भगवान की कृपा चाहिए। शंकराचार्य भी कह रहे हैं- भगवान के अनुग्रह से, उनकी कृपा से भगवान की प्राप्ति होगी, यह अपने बल से नहीं हो सकता।
*क्या भगवान को जानने का अन्य कोई उपाय है?*
क्या भगवान को जानने का और कोई उपाय है? -जी हाँ! एक उपाय है। यदि वह उपाय कर लें तो फिर भगवान से कृपा की याचना नहीं करनी पड़ेगी। हम लोगों पर माया हावी है न! इस माया को जीत लीजिए, फिर भगवान के सामने हाथ फैलाना नहीं पड़ेगा कि कृपा कर दीजिए। तो माया को जीत लीजिए!
*माया क्या है ?*
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।
(गीता, ७-१४)
गीता में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यह मेरी माया है, यह दुरत्यया है अर्थात् इसे जीतना दुस्कर है। श्रीकृष्ण की दैवी शक्ति माया से पार पाना मुश्किल है। बड़े-बड़े योगीन्द्र, मुनीन्द्र अपनी साधना के बल से माया को जीतने का स्वांग रचते रहे, मर गए, पर माया को जीत नहीं पाए। शंकराचार्य ने भी माया को जीतने के लिए बहुत शक्ति लगायी, पर उसे नहीं जीत पाए। अंत में हार कर श्रीकृष्ण भक्ति की, उनका शरणागति की, तब श्रीकृष्ण की कृपा मिली और माया गई। इसलिए माया से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है- भगवान की कृपा ।
*भगवत् कृपा की प्राप्ति कैसे होगी?*
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।
(मुण्डकोपनिषद् – २.१.१२)
यदि कोई भगवत् प्राप्त संत मिल जाए, तो हमारा काम बन जाएगा। गीता में श्रीकृष्ण ने भी यह कहा-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
(गीता ४.३४ )
यदि कोई तत्त्वदर्शी मिल जाए, भगवत् प्राप्त संत मिल जाए, तो उनकी शरणागति कर लेनी चाहिए। जिसने स्वयं भगवत् प्राप्ति कर ली, वे भगवत् प्राप्ति करा देंगे।
*वास्तविक संत की प्राप्ति*
अनंत जन्मों में जब कभी हमारे शुभ संस्कार का उदय होता है, तो कृपा का द्वार खुलता है। भगवान कृपा करके भगवत् प्राप्त संत से मिलाते हैं। संत ऐसे नहीं मिल जायेंगे! ऐसा प्रैक्टिकल मैन जिसने भगवान को पा लिया, ऐसा संत हरि कृपा से मिलेगा। अति हरि कृपा जाहि पर होई। जिस पर भगवान की विशेष कृपा होती है, उनको वास्तविक संत मिलता है, उनका सत्संग मिलता है।
*क्या भगवान कर्त्ता है*
बहुत लोग कहते हैं कि भगवान की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। इसका अर्थ है कि जो कुछ भी हो रहा है, भगवान की इच्छा से हो रहा है। एक दूसरा वाक्य भी है कि जो जैसा करता है, वैसा भरता है। पहले वाक्य से लगता है कि भगवान हमारे कर्म का कर्ता हैं और दूसरे वाक्य से लगता है कि नहीं, भगवान हमारे कर्म का कर्ता नहीं है, हम स्वयं अपने कर्म के कर्ता हैं।
पहली बात कि भगवान की इच्छा के  बिना एक पता भी नहीं हिल सकता अर्थात् भगवान की इच्छा से सबकुछ होता है, वे हमारे कर्मों के कर्ता हैं। इसका अर्थ है कि भगवान सबकुछ कर रहे हैं। यदि भगवान सबकुछ कर रहे हैं तो सर्वज्ञ भगवान से तो गलती नहीं कर सकती। यदि वे ही हमारे कर्म के कर्ता हैं, तो फिर हमसे गलत कार्य कैसे होते हैं? हमें तो सबकुछ सही-सही करना चाहिए। हम गलत कैसे करते हैं? यदि भगवान हमारे कर्म के कर्त्ता या गवर्नर है, तो फिर यह विषमता क्यों  है? किसी को तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास, नानक आदि संत बना रहे हैं और हमको चौरासी लाख योनियों के चक्कर में  घुमा  रहे हैं । यदि भगवान सबकुछ कर रहे हैं तो सब महापुरुष बन जाते या तो सब दु:ख भोगते । यह विषमता  क्यों है ?
जो कर्त्ता, वही भोक्ता
*जो कर्म का कर्ता है,* उसको फल भोगना पड़ता है। यदि भगवान हमारे कर्म का कर्ता हैं, तो उसी कर्म का फल उनको भोगना चाहिए। लेकिन क्या होता है ? कर्म के कर्त्ता भगवान हैं और हम फल भोगते हैं। जब भगवान ही कर्म के कर्ता हैं, तो फिर हम अपराधी कैसे होंगे? इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान हमारे कर्मों का कर्ता नहीं है। भगवान भी गीता में कह रहे हैं- न मैं किसी से कर्म कराता हूँ, न मैं स्वयं कर्म करता हूँ। जीव अपना कर्म स्वयं करता है, मैं केवल नोट करता हूँ।
फिर दोनों बात कैसे सही हुई कि भगवान की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता और जो जैसा करता है, वह वैसा भरता है। । दोनों बातें सही हैं। शास्त्र कहता है कि एक प्रयोजक कर्त्ता और एक प्रयोज्य कर्त्ता है। भगवान मन, बुद्धि, इन्द्रिय को कार्य करने के लिए शक्ति देते हैं। उनकी शक्ति के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। अर्थात् भगवान की शक्ति के बिना यह मन, बुद्धि, इन्द्रिय कोई कार्य नहीं कर सकता। तो भगवान प्रयोजक कर्त्ता हैं। भगवान से शक्ति मिलने के बाद जीव इसका प्रयोग कैसे करता है, यह उस जीव पर निर्भर करता है, यहाँ जीव अपने कर्म का कर्ता हो गया।
क्या भगवान की कृपा का कोई मूल्य है?
यदि भगवत्कृपा से ही भगवान मिलते हैं तो फिर भगवान ने अभी तक हमारे ऊपर कृपा क्यों नहीं की है? भगवान तो बिनु हेतु सनेही, अकारण करुण है। वे तुलसीदास, मीरा, सूरदास के ऊपर कृपा कर रहे हैं, तो हमारे ऊपर अभी तक क्यों नहीं किए? क्या भगवान कृपा करने का कोई मूल्य लेते हैं या उन्होंने कोई शर्त रखी है

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